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BackSurat Al-Waaqia (The Inevitable) - الواقعة

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56:57

نَحْنُ خَلَقْنَٰكُمْ فَلَوْلَا تُصَدِّقُونَ ﴿٥٧﴾ أَفَرَءَيْتُم مَّا تُمْنُونَ﴿٥٨﴾ ءَأَنتُمْ تَخْلُقُونَهُۥٓ أَمْ نَحْنُ ٱلْخَٰلِقُونَ﴿٥٩﴾ نَحْنُ قَدَّرْنَا بَيْنَكُمُ ٱلْمَوْتَ وَمَا نَحْنُ بِمَسْبُوقِينَ﴿٦٠﴾ عَلَىٰٓ أَن نُّبَدِّلَ أَمْثَٰلَكُمْ وَنُنشِئَكُمْ فِى مَا لَا تَعْلَمُونَ﴿٦١﴾ وَلَقَدْ عَلِمْتُمُ ٱلنَّشْأَةَ ٱلْأُولَىٰ فَلَوْلَا تَذَكَّرُونَ﴿٦٢﴾ أَفَرَءَيْتُم مَّا تَحْرُثُونَ﴿٦٣﴾ ءَأَنتُمْ تَزْرَعُونَهُۥٓ أَمْ نَحْنُ ٱلزَّٰرِعُونَ﴿٦٤﴾ لَوْ نَشَآءُ لَجَعَلْنَٰهُ حُطَٰمًا فَظَلْتُمْ تَفَكَّهُونَ﴿٦٥﴾ إِنَّا لَمُغْرَمُونَ﴿٦٦﴾ بَلْ نَحْنُ مَحْرُومُونَ﴿٦٧﴾ أَفَرَءَيْتُمُ ٱلْمَآءَ ٱلَّذِى تَشْرَبُونَ﴿٦٨﴾ ءَأَنتُمْ أَنزَلْتُمُوهُ مِنَ ٱلْمُزْنِ أَمْ نَحْنُ ٱلْمُنزِلُونَ﴿٦٩﴾ لَوْ نَشَآءُ جَعَلْنَٰهُ أُجَاجًا فَلَوْلَا تَشْكُرُونَ﴿٧٠﴾ أَفَرَءَيْتُمُ ٱلنَّارَ ٱلَّتِى تُورُونَ﴿٧١﴾ ءَأَنتُمْ أَنشَأْتُمْ شَجَرَتَهَآ أَمْ نَحْنُ ٱلْمُنشِـُٔونَ﴿٧٢﴾ نَحْنُ جَعَلْنَٰهَا تَذْكِرَةً وَمَتَٰعًا لِّلْمُقْوِينَ﴿٧٣﴾ فَسَبِّحْ بِٱسْمِ رَبِّكَ ٱلْعَظِيمِ﴿٧٤﴾ فَلَآ أُقْسِمُ بِمَوَٰقِعِ ٱلنُّجُومِ﴿٧٥﴾ وَإِنَّهُۥ لَقَسَمٌ لَّوْ تَعْلَمُونَ عَظِيمٌ﴿٧٦﴾ إِنَّهُۥ لَقُرْءَانٌ كَرِيمٌ﴿٧٧﴾ فِى كِتَٰبٍ مَّكْنُونٍ﴿٧٨﴾ لَّا يَمَسُّهُۥٓ إِلَّا ٱلْمُطَهَّرُونَ﴿٧٩﴾ تَنزِيلٌ مِّن رَّبِّ ٱلْعَٰلَمِينَ﴿٨٠﴾ أَفَبِهَٰذَا ٱلْحَدِيثِ أَنتُم مُّدْهِنُونَ﴿٨١﴾ وَتَجْعَلُونَ رِزْقَكُمْ أَنَّكُمْ تُكَذِّبُونَ﴿٨٢﴾ فَلَوْلَآ إِذَا بَلَغَتِ ٱلْحُلْقُومَ﴿٨٣﴾ وَأَنتُمْ حِينَئِذٍ تَنظُرُونَ﴿٨٤﴾ وَنَحْنُ أَقْرَبُ إِلَيْهِ مِنكُمْ وَلَٰكِن لَّا تُبْصِرُونَ﴿٨٥﴾ فَلَوْلَآ إِن كُنتُمْ غَيْرَ مَدِينِينَ﴿٨٦﴾ تَرْجِعُونَهَآ إِن كُنتُمْ صَٰدِقِينَ﴿٨٧﴾ فَأَمَّآ إِن كَانَ مِنَ ٱلْمُقَرَّبِينَ﴿٨٨﴾

तुम लोगों को (पहली बार भी) हम ही ने पैदा किया है फिर तुम लोग (दोबार की) क्यों नहीं तस्दीक़ करते तो जिस नुत्फे क़ो तुम (औरतों के रहम में डालते हो) क्या तुमने देख भाल लिया है क्या तुम उससे आदमी बनाते हो या हम बनाते हैं हमने तुम लोगों में मौत को मुक़र्रर कर दिया है और हम उससे आजिज़ नहीं हैं कि तुम्हारे ऐसे और लोग बदल डालें और तुम लोगों को इस (सूरत) में पैदा करें जिसे तुम मुत्तलक़ नहीं जानते और तुमने पैहली पैदाइश तो समझ ही ली है (कि हमने की) फिर तुम ग़ौर क्यों नहीं करते भला देखो तो कि जो कुछ तुम लोग बोते हो क्या तुम लोग उसे उगाते हो या हम उगाते हैं अगर हम चाहते तो उसे चूर चूर कर देते तो तुम बातें ही बनाते रह जाते कि (हाए) हम तो (मुफ्त) तावान में फॅसे (नहीं) हम तो बदनसीब हैं तो क्या तुमने पानी पर भी नज़र डाली जो (दिन रात) पीते हो क्या उसको बादल से तुमने बरसाया है या हम बरसाते हैं अगर हम चाहें तो उसे खारी बना दें तो तुम लोग यक्र क्यों नहीं करते तो क्या तुमने आग पर भी ग़ौर किया जिसे तुम लोग लकड़ी से निकालते हो क्या उसके दरख्त को तुमने पैदा किया या हम पैदा करते हैं हमने आग को (जहन्नुम की) याद देहानी और मुसाफिरों के नफे के (वास्ते पैदा किया) तो (ऐ रसूल) तुम अपने बुज़ुर्ग परवरदिगार की तस्बीह करो तो मैं तारों के मनाज़िल की क़सम खाता हूँ और अगर तुम समझो तो ये बड़ी क़सम है कि बेशक ये बड़े रूतबे का क़ुरान है जो किताब (लौहे महफूज़) में (लिखा हुआ) है इसको बस वही लोग छूते हैं जो पाक हैं सारे जहाँ के परवरदिगार की तरफ से (मोहम्मद पर) नाज़िल हुआ है तो क्या तुम लोग इस कलाम से इन्कार रखते हो और तुमने अपनी रोज़ी ये करार दे ली है कि (उसको) झुठलाते हो तो क्या जब जान गले तक पहुँचती है और तुम उस वक्त (क़ी हालत) पड़े देखा करते हो और हम इस (मरने वाले) से तुमसे भी ज्यादा नज़दीक होते हैं लेकिन तुमको दिखाई नहीं देता तो अगर तुम किसी के दबाव में नहीं हो तो अगर (अपने दावे में) तुम सच्चे हो तो रूह को फेर क्यों नहीं देते पस अगर वह (मरने वाला ख़ुदा के) मुक़र्रेबीन से है

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